शुक्रवार, 8 अगस्त 2025

अधिवक्ताओं के लिए विशेष - उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय आमने सामने

भारतीय न्यायपालिका मे एक ऐतिहासिक अभूतपूर्व घटना । इलाहाबाद HC के 13 जजों का चीफ़ जस्टिस से आग्रह- सुप्रीम कोर्ट का निर्देश न मानें । इलाहाबाद हाईकोर्ट के 13 जजों ने एक अभूतपूर्व क़दम उठाते हुए अपने चीफ़ जस्टिस अरुण भंसाली को पत्र लिखकर सुप्रीम कोर्ट के एक हालिया आदेश का पालन न करने और इस मुद्दे पर फुल कोर्ट मीटिंग बुलाने की मांग की है। यह पत्र सुप्रीम कोर्ट के 4 अगस्त 2025 के उस आदेश के जवाब में लिखा गया है, जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जस्टिस प्रशांत कुमार को आपराधिक मामलों की सुनवाई से हटाने और उनकी सेवानिवृत्ति तक कोई आपराधिक केस न सौंपने का निर्देश दिया गया था। इस घटनाक्रम ने भारतीय न्यायपालिका में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के बीच प्रशासनिक स्वायत्तता और अधिकार क्षेत्र को लेकर एक नया विवाद खड़ा कर दिया है। दरअसल, 4 अगस्त 2025 को जस्टिस जे.बी. परदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जस्टिस प्रशांत कुमार के एक फैसले की कड़ी आलोचना की थी। यह मामला शिखर केमिकल्स द्वारा दायर एक याचिका से जुड़ा था। इसमें एक व्यावसायिक विवाद को आपराधिक मामला बनाए जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई थी। जस्टिस प्रशांत कुमार ने अपने फैसले में कहा था कि धन की वसूली के लिए सिविल उपाय प्रभावी नहीं होने पर आपराधिक कार्यवाही की जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे 'न्याय का मजाक' करार देते हुए जस्टिस कुमार की न्यायिक समझ पर सवाल उठाए और उनके खिलाफ तल्ख टिप्पणियां कीं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में इलाहाबाद हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को निर्देश दिया कि जस्टिस प्रशांत कुमार को आपराधिक मामलों से हटाकर एक वरिष्ठ जज के साथ डिवीजन बेंच में बैठाया जाए। कोर्ट ने यह भी कहा कि जस्टिस कुमार ने 'खुद को हास्यास्पद स्थिति में डाल दिया' और उनके आदेश या तो 'कानून की अज्ञानता' या 'बाहरी प्रभाव' के कारण हो सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इसे अक्षम्य बताया और हाईकोर्ट की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठाए। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के तीन दिन बाद 7 अगस्त को इलाहाबाद हाईकोर्ट के 13 जजों ने एक पत्र लिखकर इस आदेश का विरोध किया। इस पत्र लिखने वालों का नेतृत्व जस्टिस अरिंदम सिन्हा ने किया। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से इस मामले में अपनी 'हैरानी और पीड़ा' व्यक्त की। पत्र में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश बिना किसी नोटिस के और जस्टिस प्रशांत कुमार को अपनी बात रखने का अवसर दिए बिना पारित किया गया। यह सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व के फ़ैसले, अमर पाल सिंह बनाम उत्तर प्रदेश के खिलाफ है, जिसमें कहा गया था कि उच्चतर अदालतों को उन जजों पर टिप्पणी करने से बचना चाहिए जो अपनी बात रखने के लिए मौजूद नहीं हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जजों ने पत्र में यह भी तर्क दिया है कि सुप्रीम कोर्ट के पास हाईकोर्ट पर एडमिनिस्ट्रेटिव सुपरिंटेंडेंस का अधिकार नहीं है और इसलिए जस्टिस प्रशांत कुमार के रोस्टर को बदलने का निर्देश देना उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर है। जजों ने मांग की कि इस मुद्दे पर विचार-विमर्श के लिए फुल कोर्ट मीटिंग बुलाई जाए और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पैराग्राफ़ 24 से 26 का पालन न करने का प्रस्ताव पारित किया जाए। इसके साथ ही उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के 'लहजे और तेवर' पर अपनी नाराजगी दर्ज करने की भी मांग की। इस बीच, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को शुक्रवार को फिर से सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया है। यह मामला अब 'डायरेक्शन मैटर्स' के तहत सूचीबद्ध है और इसकी स्थिति लंबित दिखाई जा रही है। यह घटनाक्रम भारतीय न्यायपालिका में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के बीच शक्ति संतुलन और प्रशासनिक स्वायत्तता को लेकर बहस को छेड़ता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जजों का यह सामूहिक कदम न केवल असामान्य है, बल्कि यह हाईकोर्ट की अपनी स्वायत्तता को बनाए रखने की इच्छा को भी दिखाता है। विशेषज्ञों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश हाईकोर्ट के चीफ़ जस्टिस के प्रशासनिक अधिकारों में हस्तक्षेप करता है जो रोस्टर निर्धारण और जजों के कार्यक्षेत्र को तय करने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। जस्टिस प्रशांत कुमार के फ़ैसले का बचाव करते हुए पत्र में कहा गया कि उनका आदेश सुप्रीम कोर्ट के कुछ पूर्व के फ़ैसलों के अनुरूप था। जजों ने सुप्रीम कोर्ट की 'बाहरी प्रभाव' या 'कानून की अज्ञानता' वाली टिप्पणियों को निराधार और आधारहीन बताया। यह भी तर्क दिया गया कि सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस कुमार को नोटिस जारी किए बिना और उन्हें सुनवाई का अवसर दिए बिना यह आदेश पारित किया, जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। यह मामला अब सुप्रीम कोर्ट में शुक्रवार की सुनवाई पर निर्भर करेगा। यह देखना बाकी है कि क्या सुप्रीम कोर्ट अपने आदेश पर पुनर्विचार करेगा या इलाहाबाद हाईकोर्ट की आपत्तियों को खारिज करेगा। यदि चीफ जस्टिस अरुण भंसाली फुल कोर्ट मीटिंग बुलाते हैं तो यह भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक दुर्लभ और बड़ी घटना होगी। कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि यह विवाद न केवल सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के बीच प्रशासनिक स्वायत्तता के सवाल को सामने लाता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि न्यायिक टिप्पणियों और आदेशों का लहजा और तरीका कितना अहम हो सकता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के 13 जजों का यह कदम भारतीय न्यायपालिका में एक ऐतिहासिक और अभूतपूर्व घटना है। यह न केवल सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के बीच शक्ति संतुलन को लेकर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि न्यायिक स्वतंत्रता और प्रशासनिक स्वायत्तता के मुद्दे कितने संवेदनशील हो सकते हैं। आर के जैन एडवोकेट स्रोत : satyahindi.com

समय है अबभी सुधार कर लो

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने जब तक एकता और संघर्ष की नीति रखी तब तक पार्टी आगे बढती रही है। वर्तमान नीति से पार्टी कमजोर होती गई है। समय है अबभी सुधार कर लो आना कानी नहीं चलेगी। त

गुरुवार, 7 अगस्त 2025

धर्य स्थल मंदिर से जुड़े मामले में सामूहिक दफन लाशों के कंकाल मिले अधिकांश लाशें स्त्रियों की है

धर्य स्थल मंदिर से जुड़े मामले में सामूहिक दफन लाशों के कंकाल मिले अधिकांश लाशें स्त्रियों की है धर्मस्थल की धरती उगलेगी कितने राज... खुदाई के 8वें दिन गांव में तनाव, हाई अलर्ट पर पुलिस, SIT के हवाले पूरी जांच कर्नाटक के धर्मस्थल में सामूहिक दफन मामले की जांच अब पूरी तरह विशेष जांच दल यानी एसआईटी को दे दी गई है. यह मामला पूरे देश में सनसनी फैला रहा है. पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक धर्मस्थल पुलिस स्टेशन में भारतीय न्याय संहिता की धारा 211(ए) के तहत अपराध संख्या 39/2025 दर्ज किया गया था धर्मस्थल सामूहिक दफनाने के सनसनीखेज मामले की जांच एसआईटी के हवाले कर दी गई.

मकान नंबर 0, पिता का नाम- dfojgaidf; राहुल गांधी का दावा- कई चुनावों में हुई धांधली

मकान नंबर 0, पिता का नाम- dfojgaidf; राहुल गांधी का दावा- कई चुनावों में हुई धांधली राहुल गांधी ने कहा कि 'चुनाव धांधली' के सबूत एकत्र करने में कुल छह महीने का समय लगा है। उन्होंने दावा किया कि निर्वाचन आयोग मतदाता सूचियों को ‘मशीन के पढ़ने योग्य’ (मशीन रीडेबल) डेटा उपलब्ध नहीं करा रहा है ताकि ये सब पकड़ा नहीं जा सके। लोकसभा में नेता विपक्ष और रायबरेली से कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने गुरुवार को चुनाव आयोग पर पिछले कुछ चुनावों में धांधली होने का बड़ा आरोप लगाया। उन्होंने महाराष्ट्र, कर्नाटक समेत कई राज्यों की कथित वोटर लिस्ट दिखाई जिसमें एक ही पते पर कई नाम दर्ज थे। उन्होंने वोटर लिस्ट दिखाई जिसमें कई वोटरों के मकान नंबर शून्य लिखा था और पिता का नाम भी गलत था। एक वोटर में पिता का नाम- ‘dfojgaidf’ दिया गया था। उन्होंने कर्नाटक के एक विधानसभा क्षेत्र का हवाला देते हुए आरोप लगाया कि मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर धांधली करके भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को फायदा पहुंचाया गया। उन्होंने ‘वोट चोरी’ शीर्षक से संवाददाताओं के समक्ष कर्नाटक के महादेवपुरा विधानसभा क्षेत्र के मतदाता सूची के आंकड़ों की प्रस्तुति दी और धांधली का दावा किया। राहुल गांधी ने ‘‘चुनाव धांधली’’ के सबूत एकत्र करने में कुल छह महीने का समय लगा है। उन्होंने दावा किया कि निर्वाचन आयोग मतदाता सूचियों को ‘मशीन के पढ़ने योग्य’ (मशीन रीडेबल) डेटा उपलब्ध नहीं करा रहा है ताकि ये सब पकड़ा नहीं जा सके। राहुल गांधी ने कहा कि उनकी टीम ने बेंगलुरु मध्य लोकसभा सीट के महादेवपुरा विधानसभा क्षेत्र के डेटा का विश्लेषण किया और फिर गड़बड़ी का पता किया। उन्होंने दावा किया कि भाजपा बेंगलुरु मध्य लोकसभा सीट के सभी सात विधानसभा क्षेत्रों में छह में पिछड़ गई, लेकिन महादेवपुरा में उसे एकतरफा वोट मिला। राहुल गांधी ने कहा कि लोकसभा चुनाव में महादेवपुरा विधानसभा क्षेत्र में 1,00,250 मतों की चोरी की गई। उन्होंने कहा, ‘‘एक पते पर 50-50 मतदाता थे...कई जगहों पर नाम एक थे, फोटो अलग अलग थे।’’ कांग्रेस नेता ने कहा, ‘‘हमारे संविधान में जो बातें निहित हैं वो इस तथ्य पर आधारित हैं कि एक व्यक्ति को एक वोट का अधिकार होगा। सवाल यह है कि अब यह विचार कितना सुरक्षित है कि एक व्यक्ति को एक वोट अधिकार मिलेगा?’’ राहुल गांधी ने कहा, ‘‘पिछले कुछ समय से जनता में एक संदेह था। सत्ता विरोधी माहौल दल के खिलाफ होता है, लेकिन भाजपा इकलौती ऐसी पार्टी जिसके खिलाफ यह माहौल नहीं होता।’’ उन्होंने महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव का उल्लेख करते हुए कहा कि सर्वेक्षण कुछ कह रहे थे, लेकिन नतीजे कुछ और हो गए। कांग्रेस नेता ने कहा, ‘‘जब ईवीएम नहीं था तो पूरा देश एक दिन वोट करता था, लेकिन आज के जमाने में कई चरणों में मतदान होता है...ऐसे में लंबे समय से संदेह की स्थिति थी।’’ राहुल गांधी ने दावा किया कि लोकसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र में पांच महीनों के भीतर इतने मतदाताओं के नाम जोड़ दिए गए, जो पहले पांच साल की अवधि में नहीं जोड़े गए थे। उन्होंने कहा, ‘‘महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव के दौरान एक करोड़ मतदाता बढ़ गए। हम निर्वाचन आयोग के पास गए...हमने पूरी निश्चितता के साथ यह कहा कि महाराष्ट्र में चुनाव की चोरी की गई।’’ राहुल गांधी ने कहा, "...महाराष्ट्र में, 5 महीनों में 5 साल से ज्यादा मतदाताओं के जुड़ने से हमारा संदेह बढ़ा और फिर शाम 5 बजे के बाद मतदान में भारी उछाल आया। विधानसभा में हमारा गठबंधन पूरी तरह से साफ हो गया और लोकसभा में हमारा गठबंधन पूरी तरह से साफ हो गया। यह बेहद संदिग्ध है। हमने पाया कि लोकसभा और विधानसभा के बीच एक करोड़ नए मतदाता जुड़ गए। हम चुनाव आयोग गए और यह लेख लिखा, और हमारे तर्क का सार यह था कि महाराष्ट्र चुनाव चुराया गया था। समस्या की जड़ क्या है? मतदाता सूची इस देश की संपत्ति है। चुनाव आयोग हमें मतदाता सूची देने से इनकार कर रहा है और फिर उन्होंने कुछ बहुत ही दिलचस्प किया। उन्होंने कहा कि हम सीसीटीवी फुटेज नष्ट कर देंगे। यह हमारे लिए आश्चर्यजनक था क्योंकि महाराष्ट्र में शाम 5:30 बजे के बाद भारी मतदान के बारे में एक सवाल था ताकि संख्याओं का मिलान किया जा सके। राहुल के अनुसार, निर्वाचन आयोग ने ‘मशीन से पढ़ने योग्य’ (मशीन रीडबल) मतदाता सूची देने से इनकार कर दिया। राहुल गांधी ने कहा, ‘‘ पहले हमारे पास इसका सबूत नहीं था कि भाजपा के साथ मिलकर धांधली की जा रही है...इसके बाद हमने इसका पता लगाने का फैसला किया।’’ राहुल गांधी ने बीते एक अगस्त को दावा किया था कि निर्वाचन आयोग ‘वोट चोरी’ में शामिल है और इस बारे में उनके पास ऐसा पुख्ता सबूत है जो ‘एटम बम’ की तरह है जिसके फटने पर आयोग को कहीं छिपने की जगह नहीं मिलेगी।

मंगलवार, 5 अगस्त 2025

ऐतिहासिक सम्मान को त्यागे - बिगेडियर बी एल पुनिया

ऐतिहासिक सम्मान को त्यागें -ब्रिगेडियर बी.एल. पूनिया (सेवानिवृत्त) भारत और चीन को आपसी विश्वास की भावना से मिलकर काम करने की आवश्यकता है 22 अक्टूबर 2024 को सेना प्रमुख जनरल उपेंद्र द्विवेदी का बयान कि भारतीय सेना और पीएलए एलएसी पर विश्वास बहाल करने के तरीके तलाश रहे हैं, दुर्भाग्य से गलत व्याख्या की जा रही है जिसका अर्थ है कि भारतीय सेना पीएलए या चीन को भरोसेमंद नहीं मानती है। यह बयान की गलत व्याख्या का एक उत्कृष्ट उदाहरण है जो आम धारणा को बढ़ावा देता है कि चीन की हर संभव बात के लिए निंदा की जानी चाहिए। आखिरकार, 1962 में युद्ध लड़ने और उसके बाद से कई सीमा झड़पों के बाद, दोनों पक्षों के लिए विश्वास बहाल करना स्वाभाविक है। इसलिए, भारतीय सेना प्रमुख के बयान में कुछ भी गलत नहीं है। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि चीन भरोसेमंद नहीं है, अगर भारतीयों को विश्वास की कमी का एहसास होता है, ऐसा करने के लिए उनके पास और भी मजबूत कारण हैं। यहाँ ज़ोर देने वाली बात यह है कि हमें चीन को हर समय खलनायक के रूप में चित्रित करना बंद करना होगा। अगर हम अपने इतिहास के प्रति ईमानदार होते, तो हमें एहसास होता कि 1962 की पराजय के लिए भारत ही ज़िम्मेदार था। हम जितनी जल्दी इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार कर लेंगे, हमारे द्विपक्षीय संबंधों के लिए उतना ही बेहतर होगा। इस संदर्भ में, कैप्टन बेसिल लिडेल हार्ट का यह कथन याद आता है। उन्होंने एक बार कहा था, "सैन्य मस्तिष्क में एक नया विचार डालने से ज़्यादा मुश्किल एक पुराने विचार को बाहर निकालना है।" कई सैन्य नेता इस बात से सहमत होंगे कि सैन्य संगठन अपने आकार, जटिलता और संस्कृति के कारण धारणाओं में बदलाव के प्रति अत्यधिक प्रतिरोधी होते हैं। लेकिन यह बात नागरिक आबादी पर भी समान रूप से लागू होती है, क्योंकि प्रत्येक नागरिक अपने देश से इस हद तक प्रेम करता है कि उसके लिए अपने देश को अपने देश के अलावा कहीं और स्वीकार करना लगभग असंभव हो जाता है। नैतिक रूप से उच्च भूमि पर। मुझे यकीन है कि हर चीनी नागरिक ऐसा ही मानता है, और हर पाकिस्तानी नागरिक भी, जब जम्मू-कश्मीर की बात आती है, तो यही मानता है। और सबसे अच्छी बात यह है कि तीनों देशों के नागरिक अपने विश्वासों के लिए मरने को तैयार हैं। लेकिन क्या विश्वास सत्य बन जाता है, सिर्फ इसलिए कि कोई उसके लिए मरने को तैयार है? ऐतिहासिक सत्य ही सर्वोच्च रहता है, न कि वे विश्वास जो अपने-अपने देशों के राजनीतिक आख्यानों पर आधारित होते हैं। भारत कोई अपवाद नहीं है। और यहीं असली समस्या है। जब विश्वास तथ्यों पर हावी हो जाते हैं, तो व्यक्ति न केवल वास्तविकता से, बल्कि भविष्य के अवसरों से भी अंधा हो जाता है। विदेश सचिव विक्रम मिस्री द्वारा भारत और चीन के डेमचोक और देपसांग से पीछे हटने पर सहमत होने की घोषणा के बाद से कई लेख प्रकाशित हो चुके हैं। फिर भी एक भी लेख में इस मुद्दे को उठाने की कोशिश नहीं की गई है। 1947 में जब अंग्रेज भारत से चले गए, तो मानचित्रों पर दर्शाई गई उपर्युक्त सीमा रेखाओं की कानूनी स्थिति इस प्रकार थी: जॉनसन रेखा: अक्साई चिन को कश्मीर का हिस्सा दिखाने वाली रेखा को "सीमा अपरिभाषित" के रूप में चिह्नित किया गया था। इसका मतलब था कि एक सीमा चीन के सामने प्रस्तावित की जानी थी, जो अंग्रेजों ने कभी नहीं किया। अक्साई चिन पर भारत का दावा जॉनसन रेखा पर आधारित है, जो अंग्रेजों द्वारा एकतरफा खींची गई रेखा थी और इसकी कोई कानूनी वैधता नहीं है। मैकमोहन रेखा: इसे 1937 से 'अनिर्धारित सीमा' के रूप में दर्शाया गया था, जो 1914 में तिब्बत और ब्रिटिश भारत के बीच गुप्त द्विपक्षीय संधि पर आधारित थी। हालाँकि, सीमा को कभी भी जमीनी स्तर पर सीमांकित नहीं किया गया क्योंकि यह एक अवैध संधि पर आधारित थी। एकतरफा परिवर्तन तो फिर नेहरू द्वारा चीन से परामर्श किए बिना, 1954 में भारतीय मानचित्रों से इन दोनों रेखाओं का वैध दर्जा एकतरफा हटाकर इन्हें स्थायी अंतर्राष्ट्रीय सीमा के रूप में परिवर्तित करना कैसे उचित था? क्या सीमाओं के ऐसे एकतरफा परिवर्तन को किसी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन द्वारा उचित ठहराया जा सकता है? वास्तव में, यह चीनी क्षेत्रों पर दावा जताने का एक अवैध और अनैतिक कार्य था। इसके अलावा, भारत ने 1962 में लद्दाख में 43 सैन्य चौकियों की स्थापना का सहारा क्यों लिया? ये 1842 की संधि के अनुसार स्थापित सीमाओं से आगे थीं, जिन्हें ब्रिटिश सीमा आयोग 1846-47 के संरेखण के रूप में चिह्नित किया गया था और विदेश कार्यालय रेखा-1873 द्वारा आगे बढ़ाया गया था। और भारत ने फॉरवर्ड पॉलिसी के एक भाग के रूप में नेफा में मैकमोहन रेखा के साथ 24 चौकियाँ क्यों स्थापित कीं, जिनमें से कुछ चौकियाँ मैकमोहन रेखा के पार भी थीं? इसके अलावा, भारत ने 1954 से ही नेफा के पार थगला रिज को भारतीय क्षेत्र में क्यों दिखाना शुरू कर दिया, जिससे 100 वर्ग किलोमीटर चीनी क्षेत्र उसमें शामिल हो गया? और इसी आधार पर, भारत ने 1959 में खानज़ेमाने पोस्ट पर कब्ज़ा क्यों किया और जून 1962 में मैकमोहन रेखा से आगे ढोला पोस्ट क्यों स्थापित की? सबसे बढ़कर, नेहरू ने भारत-चीन सीमा विवाद को कूटनीतिक तरीके से सुलझाने से इनकार क्यों किया, बजाय इसके कि वे आगे बढ़ने की नीति अपनाएँ, वह भी सेना प्रमुख जनरल थिमैया की सलाह के विरुद्ध? चूंकि सेना के अधिकारियों ने फॉरवर्ड पॉलिसी के क्रियान्वयन के दौरान लद्दाख सेक्टर में स्थापित सीमाओं और नेफा के पार मैकमोहन रेखा को पार करने की सामरिक बुद्धिमत्ता पर सवाल उठाया था, जैसा कि उनके मानचित्रों में चिह्नित है, तो रक्षा मंत्रालय द्वारा उन्हें इसकी अवहेलना करने के लिए क्यों कहा गया, जिसके आदेश लिखित में दिए गए थे? भारत ने 9 फ़रवरी 1951 को चीन से परामर्श किए बिना, 'एकतरफ़ा' रूप से नेफ़ा पर कब्ज़ा करने का फ़ैसला क्यों किया, जबकि '1914 का द्विपक्षीय समझौता' अंतरराष्ट्रीय समझौतों के अनुसार अवैध था? हालाँकि चीन नेफ़ा को भारत को देने के लिए हर हाल में राज़ी हो जाता, क्योंकि उसने 1960 में मैकमोहन रेखा को मान्यता देकर भारत को वही पेशकश की थी। लेकिन उसने अक्टूबर 1962 में भारत द्वारा चीन की जनता की राष्ट्रवादी भावनाओं का ज़रा भी ध्यान रखे बिना नेफ़ा पर एकतरफ़ा कब्ज़ा करने की कार्रवाई पर अपनी पीड़ा ज़रूर व्यक्त की थी। नेफ़ा पर 'एकतरफ़ा' कब्ज़ा करके, क्या भारत ने 65,000 वर्ग किलोमीटर ज़मीन नहीं हड़प ली, जो क़ानूनी तौर पर चीन की थी? और फिर भी, आज हम चीन की नीयत पर शक ज़ाहिर कर रहे हैं! नेहरू की समस्या यह थी कि उन्होंने चीन की सैन्य क्षमताओं का गलत आकलन किया और उसे एक कनिष्ठ साझेदार माना, क्योंकि चीन को भारत से लगभग दो साल बाद आज़ादी मिली थी। दुर्भाग्य से, उनका मानना था कि नौ-दसवाँ भूभागीय दावा, कब्जे के अधिकार से ही जायज़ हो जाता है। इसी अधिकार के आधार पर भारत ने नेफा पर दावा किया था। क्या यह उचित है? भारतीय धारणा 24 अक्टूबर 2024 को, गोवा स्थित ओ'हाराल-डो ने 'चीन भरोसे के लायक नहीं है' शीर्षक से एक संपादकीय प्रकाशित किया। संपादकीय में कहा गया है: "भारतीय सेना प्रमुख का ज़ोर "भरोसे" शब्द पर था। यह इस बात को दर्शाता है। भारतीय सेना चीन द्वारा पीछे हटने की घोषणाओं को बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं ले रही है, क्योंकि उसका विश्वासघात का इतिहास रहा है। लेकिन संपादकीय में चीन द्वारा विश्वासघात से संबंधित एक भी घटना का उल्लेख नहीं किया गया, जिसके कारण भारत-चीन सीमा विवाद हुआ।" डेक्कन हेराल्ड में 26 अक्टूबर 2024 को प्रकाशित लेफ्टिनेंट जनरल राकेश शर्मा के लेख 'भारत को चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अपनी चौकसी कम नहीं करनी चाहिए' में कहा गया है, "चीन के साथ बड़ा सीमा प्रश्न अभी भी अनसुलझा है और इसलिए सतर्क रहना भारत के लिए फायदेमंद होगा। यह एक ठोस लाभ होगा, लगातार अक्साई चिन कभी भारत का नहीं था। अक्साई चिन पर भारत का दावा जॉनसन रेखा पर आधारित है, जो ब्रिटिश भारत द्वारा एकतरफा खींची गई रेखा थी और इसमें अक्साई चिन को कश्मीर का हिस्सा माना गया था। इसकी कानूनी स्थिति को 'सीमा अनिर्धारित' के रूप में दर्शाया गया था। अक्साई चिन पर हमारे दावे के साथ, लेकिन उन्होंने अक्साई चिन पर भारत के दावे के आधार को उचित ठहराने की सुविधा को नजरअंदाज कर दिया है। हमें याद रखना चाहिए कि सैनिकों को पीछे हटाना सीमा पर तनाव कम करने का पहला कदम है। इसके बाद, हमें चीन के साथ अपने संबंधों को मज़बूत करने के लिए इस मुद्दे को और आगे बढ़ाना होगा। चीन के इरादों पर शक करने के बजाय, हमें पूरा विश्वास दिखाना चाहिए। विश्वास ही विश्वास को बढ़ावा देता है। इसलिए, हमें सकारात्मक दृष्टिकोण दिखाने की ज़रूरत है। इसके अलावा, हमें चीन को कम नहीं आंकना चाहिए और यह नहीं मान लेना चाहिए कि चीन किसी मजबूरी के कारण सीमा पर तनाव कम करने के लिए सहमत हो गया है। वास्तव में, चीन सैन्य और आर्थिक दोनों ही दृष्टि से भारत से बहुत आगे है, और अमेरिका जैसी महाशक्ति से प्रतिस्पर्धा कर रहा है। हममें से ज़्यादातर लोग जैसा सोचते हैं, उसका भारत से कोई सीधा मुकाबला नहीं है। चीन बहुत पहले ही एक बड़ी छलांग लगा ली गई है। 1962 की पराजय के लिए चीन को दोषी ठहराने वालों से दो सवाल: यदि नेहरू के पास छिपाने के लिए कुछ नहीं था तो उन्होंने हेंडरसन ब्रूक्स रिपोर्ट को संसद में क्यों नहीं पेश किया? यहां तक कि भाजपा सरकार, जो विपक्ष में रहते हुए इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की जोरदार मांग कर रही थी, 1962 के युद्ध के 62 वर्ष बाद भी इसे सार्वजनिक करने का साहस क्यों नहीं जुटा पाई? जवाब आसान है। एक राष्ट्र के रूप में, भारत अपनी फॉरवर्ड पॉलिसी के ज़रिए धीरे-धीरे चीनी ज़मीन हड़पने की कोशिश में दोषी था। यह एक कड़वी सच्चाई है जो 99.99 प्रतिशत भारतीयों को अप्रिय लगती है। निष्कर्ष 1951 के बाद के हमारे इतिहास और भारत द्वारा नेफा पर एकतरफा कब्ज़ा करने को देखते हुए, चीन को भारत के कदमों से सावधान रहना चाहिए, न कि चीन को। चीन से घृणा करना और उसकी निंदा करना इसका उत्तर नहीं है। इसका उत्तर 1962 की हिमालयी भूल को सुधारने में निहित है। जैसा कि नेविल मैक्सवेल ने अपनी पुस्तक "इंडियाज़ चाइना वॉर" में सही लिखा है, चीनी मानचित्र मैकमोहन रेखा की अनदेखी करते रहे हैं और भारत के साथ पूर्वी सीमा को ब्रह्मपुत्र घाटी के उत्तर में दिखाते रहे हैं, ठीक उसी तरह जैसे भारतीय मानचित्र अक्साई चिन पर अपना दावा बनाए रखते हैं: हालाँकि, संभवतः पेकिंग का लंबे समय से यह प्रस्ताव कि जब भारत "यथास्थिति" के आधार पर सीमा समझौते के लिए तैयार हो, अभी भी कायम है। इसलिए यह भारत के लिए अपनी चीन सीमाओं पर आगे किसी भी रक्तपात को रोकने और आपसी विश्वास और समझ की भावना से सहयोग की दिशा में काम करने का एक ऐतिहासिक अवसर है। II इस मामले के तथ्यों पर प्रकाश डालने के लिए। पूरी कहानी चीन को खलनायक के रूप में चित्रित करने पर आधारित है, क्योंकि इससे अपार मनोवैज्ञानिक संतुष्टि मिलती है। लेकिन लंबे समय से चले आ रहे सीमा विवाद को सुलझाने का यह तरीका नहीं है। और सच्चाई न जानने से भी ज़्यादा समस्या, अप्रिय सच्चाई को पचा न पाने की मनोवैज्ञानिक अक्षमता में है। हमें यह समझना चाहिए कि यह भारत-चीन सीमा पर शांति बहाल करने का एक ऐतिहासिक अवसर है, जो 1962 से हमें नहीं मिला है। अब हमें इस अवसर को नहीं गंवाना चाहिए, जैसा कि हमने अप्रैल 1960 में किया था, जब चाउ-एन-लाई के नेतृत्व में चीनी प्रतिनिधिमंडल ने बर्मा के साथ सीमा विवाद सुलझाने के तुरंत बाद, कूटनीति के माध्यम से शांतिपूर्ण तरीके से सीमा विवाद को सुलझाने के प्रयास में दिल्ली का दौरा किया था। सीमा का दावा चीन के प्रति हमारे अविश्वास को दूर करने का एकमात्र तरीका अक्साई चिन और पूर्ववर्ती उत्तर-पूर्व: सीमांत एजेंसी (नेफा) से जुड़े सीमा विवाद के व्यापक मुद्दे की जाँच करना है। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि किसी भी भू-भाग पर दावा करने का आधार या तो विजय या सहमति होना चाहिए। इस स्पष्टता के साथ, आइए अक्साई चिन पर नज़र डालें। अक्साई चिन कभी भारत का नहीं था। अक्साई चिन पर भारत का दावा जॉनसन लाइन पर आधारित है, जो ब्रिटिश भारत द्वारा एकतरफा खींची गई रेखा थी और इसमें अक्साई चिन को कश्मीर का हिस्सा माना गया था। इसकी कानूनी स्थिति को 'सीमा अपरिभाषित' के रूप में दर्शाया गया था। इसका उद्देश्य इसे चीन के सामने एक सीमा प्रस्ताव के रूप में प्रस्तुत करना था, जो नहीं हुआ। जो लोग इससे अलग मानते हैं, उन्हें जवाब देना चाहिए। निम्नलिखित प्रश्न: किस युद्ध में भारत या ब्रिटिश भारत ने अक्साई चिन पर विजय प्राप्त की? किस संधि के तहत अक्साई चिन भारत को दिया गया? 1914 के शिमला त्रिपक्षीय सम्मेलन के दौरान भी मानचित्रों में अक्साई चिन को तिब्बत का हिस्सा क्यों दिखाया गया था? क्या भारत या ब्रिटिश भारत का कभी अक्साई चिन पर भौतिक कब्ज़ा था? यदि नहीं, तो क्यों? ब्रिटेन ने अक्साई चिन पर कभी कोई दावा क्यों नहीं किया, सिवाय 1899 में मैकार्टनी-मैक-डोनाल्ड रेखा के ज़रिए एक सीमा प्रस्ताव के, जिसमें अक्साई चिन के केवल एक हिस्से को ब्रिटिश क्षेत्र में शामिल करने का सुझाव दिया गया था? चीन ने इस प्रस्ताव का कभी जवाब नहीं दिया। और अगर ब्रिटेन का कोई क़ानूनी दावा था, तो उन्हें उस पर शारीरिक रूप से कब्ज़ा करने से किसने रोका था? अक्साई चिन पर कब्ज़ा? 1947 में जब अंग्रेज़ भारत से गए, तो पूरा अक्साई चिन चीन के कब्ज़े में था। पूर्वी लद्दाख के चांग ला में बर्फबारी के कारण सड़क खोलने का काम जारी यदि यह कभी ब्रिटिश भारत के कब्जे में था, तो किस वर्ष और किस लड़ाई/युद्ध में चीन ने अक्साई चिन पर पुनः कब्जा कर लिया था? यदि अक्साई चिन भारत का है, तो भारत को चीन द्वारा अक्साई चिन राजमार्ग के निर्माण के बारे में कैसे पता नहीं चला, जो मार्च 1956 में शुरू हुआ था, जब तक कि 1959 में चीनी मीडिया में इसकी खबर नहीं आई? जब अंग्रेजों ने जॉनसन रेखा को नक्शों पर छापा, तो उन्होंने उसकी कानूनी स्थिति को 'सीमा अपरिभाषित' बताकर ऐसा किया। यहाँ तक कि भारत के आधिकारिक नक्शों के 1948 और 1950 के संस्करणों में भी यही कानूनी स्थिति दिखाई गई। फिर किस आधार पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1954 के भारतीय नक्शों में जॉनसन रेखा की कानूनी स्थिति को हटाकर उसे 'एकतरफा' अंतर्राष्ट्रीय सीमा में बदल दिया? जब अंग्रेज़ भारत छोड़कर गए थे, तो चुशूल लद्दाख़ में भारत की सबसे अग्रिम चौकी थी? फिर हमारा दावा अक्साई चीन तक कैसे पहुँच गया? 1962 के युद्ध के दौरान भी, भारतीय सेना के पास ब्रिटिश काल के 1948 या 1950 के नक्शे ही रहे, जहाँ जॉनसन रेखा की कानूनी स्थिति 'सीमा अपरिभाषित' के रूप में दिखाई जाती रही। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि नेहरू भारतीय सेना को एकतरफा रूप से बदले हुए नक्शे जारी करने में विफल रहे। मैकमोहन रेखा पर दावा मैकमोहन रेखा ब्रिटिश भारत और तिब्बत के बीच मार्च 1914 में हस्ताक्षरित एक 'गुप्त अवैध संधि' पर आधारित थी। हालाँकि, जो लोग इसे एक वैध अंतर्राष्ट्रीय सीमा मानते हैं, उन्हें निम्नलिखित प्रश्नों पर विचार करने की आवश्यकता है: अगर चीन का मैकमोहन रेखा के प्रस्ताव से कोई लेना-देना नहीं था, तो ब्रिटिश भारत द्वारा अक्टूबर 1913 में शिमला में आयोजित 'त्रिपक्षीय सम्मेलन' में चीन को क्यों आमंत्रित किया गया था? क्या भारत ने अनुच्छेद 370 को हटाने पर चर्चा के लिए पाकिस्तान को आमंत्रित किया था? जब चीन ने अक्टूबर 1913 में मैकमोहन रेखा के प्रस्ताव को स्वीकार करने से इनकार कर दिया, तो ब्रिटिश भारत ने चीन को आमंत्रित किए बिना फरवरी-मार्च 1914 में दिल्ली में तिब्बत के साथ एक 'गुप्त' द्विपक्षीय बैठक क्यों बुलाई, और 24 मार्च 1914 को द्विपक्षीय रूप से मैकमोहन रेखा के संरेखण पर निर्णय क्यों लिया? क्या यह संधि 1906 के ग्लो-चीनी कन्वेंशन और 1907 के एंग्लो-रूसी कन्वेंशन का उल्लंघन नहीं थी, जिसमें चीनी सरकार की मध्यस्थता के अलावा तिब्बत के साथ बातचीत पर रोक लगाई गई थी? क्या चीन ने यह घोषणा नहीं की थी कि वह तिब्बत के साथ किसी भी गुप्त संधि को स्वीकार नहीं करेगा, क्योंकि तिब्बत चीन के अधीन था और उसे स्वतंत्र संधि करने का अधिकार नहीं था? क्या तिब्बत ने कभी चीन के इस बयान का विरोध किया? अगर मैकमोहन रेखा एक कानूनी संधि पर आधारित थी, तो अंग्रेजों ने इसे 1914 में ही क्यों नहीं प्रकाशित किया, बजाय इसके कि 23 साल बाद 1937 में इसे प्रकाशित करके इसकी कानूनी स्थिति को 'सीमा अनिर्धारित' दिखाया जाए? और 1947 में अपनी अंतिम यात्रा से पहले ब्रिटिश भारत को मैकमोहन रेखा का ज़मीनी स्तर पर सीमांकन करने से किसने रोका था? इसके अलावा, यदि यह एक कानूनी संधि थी, तो अंग्रेजों को 1914 में ही नेफा पर कब्ज़ा करने से किसने रोका, और भारत को 1951 में नेफा पर कब्ज़ा करने के लिए 37 वर्षों तक इंतजार क्यों करना पड़ा? -FORCE | 2024-15 मार्च

कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक में मौलाना हसरत मोहानी का योगदान

'तेलंगाना प्रगतिशील लेखक संघ', 'तेलंगाना साहित्य अकादमी' और 'तेलंगाना अरब अकादमी' के संयुक्त राज्य अमेरिका में एक दिव्य दीक्षा का आयोजन किया गया। 'उर्दू हॉल', हिमायत नगर में इस दीक्षांत समारोह का आयोजन स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार, संपादक और मकबूल शायर मौलाना हसरत मोहानी पर किया गया था। वर्ष 2025 हसरत मोहानी का 150वाँ जन्म जयंती वर्ष और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का शताब्दी वर्ष है। इस बात पर विचार किया जा रहा है कि इस साल मेमोरियल बनाने के लिए इस इवेंट को विशेष रूप से तैयार किया गया था। एसोसिएशन में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के अलावा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहयोगियों, सामाजिक, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और छात्रों ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया। सत्र की शुरुआत से पहले प्रगतिशील लेखक संघ का झंडा फहराया गया। उद्घाटन सत्र के अध्यक्ष मंडल में प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष पी. लक्ष्मीनारायण, संगठन के राष्ट्रीय महासचिव सुखदेव सिंह सीआ, सचिव टी.एस. नटराजन, डॉ. मोहनदास, अविनाश तिवारी, संगठन के अध्यक्ष मंडल सदस्य के नथमल शर्मा, पूनम सिंह और आंध्र प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश अध्यक्ष आर. चन्द्रशेखर रेड्डी, तेलंगाना प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश अध्यक्ष आर. वी. रामराव के अलावा पूर्व राज्य सभा के सदस्य अज़ीज़ पाशा भी शामिल थे। सत्रह में स्वागत भाषण तेलंगाना अरबिया प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. अविनाश रानी बावा ने दिया, वहीं उद्घाटन भाषण पूर्व विधायक कॉमरेड चाडा वेंकट रेड्डी ने दिया। मुख्य चर्चा पी.एस.सी. तुर्क विश्वविद्यालय के पूर्व राष्ट्रपति प्रोफेसर एस. वी. सत्यनारायण ने दिया। सत्रह के विशिष्ट अतिथि तेलंगाना साहित्य अकादमी के सचिव डॉ. नमोजी बालाचारी थे। इस सत्र में आंध्र प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष एटुकेरी प्रसाद को भी सम्मानित किया गया। पूर्व राज्य सदस्य सभा अज़ीज़ पाशा ने मौलाना हसरत मोहानी को याद करते हुए कहा, "हसरत मोहानी की जिंदगी और उनके कारनामों को कभी भुलाया नहीं जा सकता। वे हिंदुस्तान की मिली-जुली तहजीब के प्रतीक थे। संविधान सभा के सदस्य थे और उन्होंने भारत विभाजन का विरोध किया था।" वर्ष 2026 में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के नब्बे वर्ष पूरे हो रहे हैं। संगठन की विरासत को याद करते हुए, प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष पी. लक्ष्मी नारायण ने कहा, "आपकी स्थापना के बाद से ही संगठन देश भर के प्रतिष्ठित विद्वान, बुद्धिजीवियों और दार्शनिकों का समर्थन कर रहा है। वर्ष 1938 में प्रगतिशील लेखक संघ के दूसरे राष्ट्रीय सम्मेलन में न केवल पंडित विहारी नेहरू, सरोजिनी नायडू शामिल हुए, बल्कि गुरुदेव रसिकनाथ टैगोर ने भी इसमें अपना अपना लिखित राजदूत भेजा।" प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव डॉ. सुखदेव सिंह सिरसा ने कहा, ”देश की आज़ादी में मौलाना हसरत मोहानी का बड़ा योगदान है। वर्ष 1921 में उन्होंने ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ का नारा दिया। इस नारे के साथ बाद में भगत सिंह ने ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ को जोड़ा। बाद में ये नारे देश के कोने-कोने में गूँजे। आज़ादी के बाद भी इन नारों की प्रासंगिकता ख़त्म नहीं हुई है। साम्राज्यवाद के नए-नए चेहरे आज हमारे सामने आ रहे हैं। फासीवाद और कॉरपोरेट के ख़िलाफ़ भी हमें उसी तरह एकजुट होना पड़ेगा। जब भी इस तरह के हालात पैदा होंगे, इन नारों की प्रासंगिकता बनी रहेगी।” डॉ. सिरसा ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ”आज हैदराबाद में हसरत मोहानी पर सेमिनार आयोजित हो रहा है। हमें मोहानी के साथ-साथ मखदूम मोहिउद्दीन को भी याद करना चाहिए। आज जब दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में युद्ध का माहौल बना हुआ है, तब उनकी नज़्म ‘जाने वाले सिपाही से पूछो, वो कहाँ जा रहा है’ बहुत याद आती है। यह नज़्म युद्ध की भयावहता को दर्शाती है।” कॉमरेड चाडा वेंकट रेड्डी ने कहा, ”फासीवाद ने हमारे देश को बहुत नुकसान पहुँचाया है। आज हमारी सांस्कृतिक भिन्नता और सामाजिक ताना-बाना सभी कुछ इसके निशाने पर है। ऐसे माहौल में हसरत मोहानी को याद करना इसलिए ज़रूरी है कि उन्होंने हमेशा राष्ट्रीय एकता की बात की। मौलाना होने के बावजूद उन्होंने कृष्ण भक्ति की नज़्में लिखीं।” सेमिनार के उद्घाटन सत्र में तेलुगु भाषा की तीन किताबों के अलावा किताब ‘बलराज साहनी: एक समर्पित और सृजनात्मक जीवन’ (गार्गी प्रकाशन, नई दिल्ली) का विमोचन भी हुआ। विमोचन के बाद किताब के संपादक ज़ाहिद ख़ान ने संक्षेप में किताब की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए कहा, ”किताब की ख़ासियत भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पहले महासचिव पी.सी. जोशी का एक लंबा आलेख है, जो उन्होंने बलराज साहनी पर लिखा था। इसके अलावा किताब में बलराज साहनी के करीबी दोस्त ख़्वाजा अहमद अब्बास, जसवंत कंवल और बलराज साहनी के बेटे परीक्षित साहनी के लेख शामिल हैं, साथ ही बलराज साहनी की कुछ तक़रीरें और निबंध भी हैं।” सत्र के अंत में तेलंगाना प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. पल्लेरु वीरास्वामी ने सत्र में शामिल सभी अतिथियों और श्रोताओं का धन्यवाद किया। उद्घाटन सत्र के बाद मौलाना हसरत मोहानी की शख्सियत और उनके राजनीतिक एवं साहित्यिक योगदान पर दो और सत्र हुए, जिनमें विद्वान वक्ताओं ने अपने महत्वपूर्ण वक्तव्य दिए। सेमिनार का दूसरा और महत्वपूर्ण सत्र ‘हसरत मोहानी और साहित्य’ विषय पर था। इस सत्र की मुख्य अतिथि थीं-प्रोफेसर कीर्तिमालिनी विट्ठलराव जावले (डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, महाराष्ट्र)। अन्य वक्ताओं में शामिल थे-डॉ. मोहम्मद काशिफ (हैदराबाद विश्वविद्यालय), प्रोफेसर अर्शिया (हैदराबाद विश्वविद्यालय), डॉ. रफिया सलीम (हैदराबाद विश्वविद्यालय), श्रीमती महजबीन, तेलंगाना प्रगतिशील लेखक संघ उर्दू की अध्यक्ष डॉ. अवधेश रानी बावा और लेखक-पत्रकार ज़ाहिद ख़ान। सत्र में शामिल सभी वक्ताओं ने अपने लिखित वक्तव्य पढ़े, जो मौलाना हसरत मोहानी की शख्सियत और उनके साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक योगदान को बेहद उम्दा तरीके से उजागर करते थे। खास बात यह थी कि ये सभी लेख एक-दूसरे के विषय से भिन्न थे। श्रोताओं ने इन लेखों को बहुत पसंद किया। ज़ाहिद ख़ान ने अपने लेख का आरंभ इस अंदाज़ में किया, ”जंग-ए-आज़ादी में सबसे पहले ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ का जोशीला नारा बुलंद करना और हिंदुस्तान की पूर्ण आज़ादी की मांग-महज़ ये दो बातें ही मौलाना हसरत मोहानी की बावक़ार हस्ती को बयान करने के लिए काफी हैं। वरना उनकी शख्सियत से जुड़े ऐसे अनेक किस्से और हैरतअंगेज़ कारनामे हैं, जो उन्हें जंग-ए-आज़ादी के पूरे दौर और फिर आज़ाद हिंदुस्तान में महान बनाते हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उनके बारे में कहा था, ‘मुस्लिम समाज के तीन रत्न हैं और मुझे लगता है कि इन तीनों में मोहानी साहब सबसे महान हैं।”’ उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ”वर्ष 1925 में मौलाना हसरत मोहानी का झुकाव कम्युनिज़्म की ओर हो गया। यहाँ तक कि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के पहले सम्मेलन की नींव उन्होंने ही रखी। वर्ष 1926 में कानपुर में हुई पहली ‘कम्युनिस्ट कॉन्फ्रेंस’ में मौलाना हसरत मोहानी ने ही स्वागत भाषण पढ़ा, जिसमें उन्होंने पूर्ण आज़ादी, सोवियत रिपब्लिक की तर्ज़ पर स्वराज की स्थापना और स्वराज स्थापित होने तक किसानों और मज़दूरों के कल्याण पर ज़ोर दिया। वर्ष 1936 में जब लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ की पहली कॉन्फ्रेंस हुई, तो मौलाना हसरत मोहानी केवल एक निमंत्रण-पत्र पर बिना किसी औपचारिकता के कानपुर से इस कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने लखनऊ पहुँच गए। अपनी तक़रीर में उन्होंने न केवल प्रगतिशील लेखक संघ के घोषणा-पत्र और इसके मकसद से सहमति जताई, बल्कि इस बात पर भी ज़ोर दिया कि ‘साहित्य में आज़ादी की तहरीक की झलक होनी चाहिए। प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े लेखकों को मज़दूरों, किसानों और तमाम पीड़ित इंसानों की पक्षधरता करनी चाहिए। लेखक को ज़िंदगी के अधिक महत्वपूर्ण और गंभीर मसलों की ओर ध्यान देना चाहिए।”’ अपनी इस तक़रीर में साहित्यकार और आलोचक ज़ाहिद ख़ान ने अक्टूबर 1945 में हैदराबाद में आयोजित प्रगतिशील उर्दू साहित्यकारों की ‘अखिल भारतीय कॉन्फ्रेंस’ का भी ज़िक्र किया, जिसमें मौलाना हसरत मोहानी ने न केवल हिस्सा लिया, बल्कि इस कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष-मंडल में भी शामिल थे। उन्होंने आगे कहा, ”ग़ज़ल को दोबारा ज़िंदगी बख्शने वाले और ग़ज़ल की आलीशान इमारत के पाँच स्तंभों-फ़ानी बदायूनी, असग़र गोंडवी, फ़िराक़ गोरखपुरी और जिगर मुरादाबादी के साथ हसरत मोहानी भी एक अहम स्तंभ माने जाते हैं। मशहूर आलोचक रशीद अहमद सिद्दीकी ने मौलाना हसरत मोहानी पर लिखे अपने रेखाचित्र में उनकी कई खूबियों को बयान करते हुए लिखा है, ‘किसी से न दबने वाला, हर शख्स से स्नेह करने वाला, ज़बान का दाता, शायरों का वली, ग़ज़ल का इमाम, साहित्य का खिदमतगार। कैसी सच्ची बात एक अज़ीज़ ने कही कि ‘सियासत कोयले का कारोबार है, जिसमें सभी का हाथ और बहुतों का मुँह काला होता है, सिवाय हसरत के।”’ ज़ाहिद ख़ान ने अपने लेख में एक और खास बात का ज़िक्र करते हुए कहा, ”देश का संविधान बनाने वाली समिति में मौलाना हसरत मोहानी शामिल थे। संविधान सभा के सदस्य और संसद सदस्य रहते हुए उन्होंने कभी वीआईपी सुविधाएँ नहीं लीं। यहाँ तक कि वे संसद से वेतन या कोई भी सरकारी सुविधा नहीं लेते थे। हसरत मोहानी संविधान सभा के एकमात्र ऐसे सदस्य थे, जिन्होंने संविधान पर अपने हस्ताक्षर नहीं किए, और इसका कारण यह था कि उन्हें लगता था कि देश के संविधान में मज़दूरों और किसानों की सत्ता स्थापित होने का कोई ठोस प्रावधान नहीं है।” सत्र के समापन पर तेलंगाना के क्रांतिकारी लेखक संघ उर्दू के जनरल निखत आरा रॉयलन ने दीक्षांत समारोह में सभी राष्ट्रमंडल और शोकसभाओं में भाग लिया। (प्रस्तुति : जाहिद ख़ान)

सोमवार, 4 अगस्त 2025

प्रज्ञा सिंह ठाकुर को बचाने के लिए क्या क्या हुआ है

क्या मालेगांव ब्लास्ट के अहम दस्तावेजो के गायब होने से और मामले मे राजनीतिक दख़लअंदाज़ी से केस का फैसला प्रभावित हुआ है ? मालेगांव ब्लास्ट 2008 केस में विशेष एनआईए कोर्ट ने बीजेपी की पूर्व सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर, कर्नल प्रसाद पुरोहित समेत 7 लोगों को बरी कर दिया। लेकिन इस विस्तृत फैसले को पढ़ा जाना चाहिए, क्योंकि अदालत ने तमाम सवाल उठाए हैं। इस फैसले के बाद जिस तरह तमाम तत्व इसे सोशल मीडिया पर अपने नजरिए से परोस रहे हैं, उससे मूल सच्चाई सामने नहीं आ पा रही है। टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में एक सनसनीखेज खुलासा किया गया है। विशेष एनआईए कोर्ट ने बताया कि इस मामले से संबंधित महत्वपूर्ण दस्तावेज गायब हो गए और मूल बयानों के कागजात भी खो गए हैं। इस घटना ने जांच की पारदर्शिता और विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। 29 सितंबर 2008 की रात को महाराष्ट्र के नासिक जिले के मालेगांव में भिखु चौक पर हुए विस्फोट ने पूरे क्षेत्र को हिलाकर रख दिया था। इस धमाके में छह लोगों की मौत हो गई थी और सौ से अधिक लोग घायल हुए थे। यह विस्फोट रमज़ान के पवित्र महीने और नवरात्रि के हिंदू त्योहार की पूर्व संध्या पर हुआ था, जिसके कारण सांप्रदायिक तनाव की आशंका बढ़ गई थी। इस मामले की जांच और सुनवाई 17 साल तक चली, और अंततः 31 जुलाई 2025 को विशेष एनआईए कोर्ट ने सभी सात आरोपियों को बरी कर दिया। कोर्ट ने अपनी टिप्पणियों में कहा कि इस मामले में कई महत्वपूर्ण दस्तावेज गायब हो गए, और गवाहों के मूल बयान खो गए। इसके अलावा, जांच के दौरान सबूतों के साथ छेड़छाड़ और गवाहों के बयान वापस लेने के आरोप भी सामने आए। इस मामले में एक सेवारत सेना अधिकारी को आतंकी गतिविधियों के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, जिसने उस समय काफी विवाद खड़ा किया था। विभिन्न जांच एजेंसियों द्वारा इस मामले को संभालने के कारण जांच की दिशा और विश्वसनीयता पर सवाल उठे हैं। मुंबई मिरर के अनुसार, सीआरपीसी 164 और मकोका के तहत दर्ज कम से कम 13 गवाहों और दो आरोपियों के इकबालिया बयान 2016 तक अदालती रिकॉर्ड से गायब हो गए। इनमें प्रज्ञा ठाकुर और रामजी कलसांगरा (एक फरार आरोपी) के बीच मालेगांव विस्फोट की योजना पर चर्चा के दौरान हुई बैठकों के विवरण शामिल थे। अदालत-दर-अदालत ट्रैकिंग के बावजूद मूल दस्तावेजों का पता न चलने के बाद, विशेष अदालत ने अंततः बचाव पक्ष की आपत्तियों के बावजूद, फोटोकॉपी के इस्तेमाल की अनुमति दे दी। दिल्ली में एनआईए द्वारा दर्ज किए गए नए बयान पहले के बयानों के बिल्कुल विपरीत थे, जिसके कारण अब आरोपियों को दोषमुक्त किया गया है। मालेगांव ब्लास्ट की जांच में राजनीतिक दखल - राजनीतिक हवा और सरकारी पक्ष की उदासीनता 2014 से नज़र आने लगी थी। 2014 में केंद्र की सत्ता में बीजेपी आई। इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, 2014 के बाद सरकारी पक्ष का रवैया बदल गया, जिसकी पुष्टि शुरुआती विशेष लोक अभियोजक रोहिणी सालियान ने सार्वजनिक रूप से की। 2015 में, सालियान ने खुलासा किया कि एनआईए अधिकारियों ने उन्हें आरोपियों के प्रति "नरम रुख" अपनाने का निर्देश दिया था। जब उन्होंने इनकार किया, तो उन्हें दरकिनार कर दिया गया और उनकी जगह किसी और को पेश किया गया। उन्होंने बताया कि एक वरिष्ठ अधिकारी आए और कहा कि उच्च अधिकारियों से निर्देश मिले हैं। आपकी जगह कोई और पेश होगा।" सालियान की जगह आए अविनाश रसाल ने बाकी मुकदमे की अगुवाई की। एनआईए के 2016 के सप्लीमेंट्री चार्जशीट ने एटीएस मामले को कमज़ोर कर दिया, मकोका हटा दिया, और एटीएस की हिरासत में प्राप्त स्वीकारोक्ति की विश्वसनीयता पर सवाल उठाया। ज्यादातर आरोपियों को कथित यातना को आधार बनाया। आरोपियों ने दावा किया कि उनके बयान ज़बरदस्ती लिए गए थे। एनआईए इससे सहमत दिखी। हालांकि एटीएस ने हिरासत में जो कथित यातना आरोपियों के साथ की थी, उसके लिए उस पर कोई औपचारिक मुकदमा नहीं चलाया गया। एटीएस ने एक मज़बूत मामला बनाया था कि अभिनव भारत एक कट्टरपंथी हिंदुत्ववादी संगठन है जो हिंसा की साज़िश रच रहा है। एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, स्वामी दयानंद पांडे द्वारा स्वयं रिकॉर्ड की गई बैठकों के टेपों में, एक समानांतर राज्य ढांचे की विस्तृत योजनाएँ दिखाई गईं, जिसका अपना झंडा, संविधान और सेना होगी। आरोपियों ने कथित मुस्लिम आतंकवादियों के कृत्यों का बदला लेने और बलपूर्वक "हिंदू राष्ट्र" बनाने के लिए खुद को तैयार करने की बात की। नासिक स्थित भोंसला मिलिट्री स्कूल - जिसका इस्तेमाल कैडरों को प्रशिक्षित करने के लिए किया जाता था - को जाँच से बचा लिया गया। जिन वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों ने यहां बैठकों में मदद की या विस्फोटकों तक पहुँच प्रदान की, उन्हें गवाह के रूप में सूचीबद्ध किया गया, न कि अभियुक्त के रूप में। इसके बावजूद, अदालत ने माना कि समूह की रूपरेखा, ढांचा साबित नहीं हो सका, और इसलिए साज़िश भी स्थापित नहीं हो सकी। अभिनव भारत के गठन का आरोप कर्नल पुरोहित पर था। अभिनव भारत ने एक बड़ा नेटवर्क फैलाया था, जिसकी कभी जाँच नहीं हुई। मालेगांव मामला कोई अकेली घटना नहीं थी। कुछ और भी घटनाओं का संबंध इस नेटवर्क से जुड़ा था लेकिन बाद में खामोशी छा गई। समझौता एक्सप्रेस विस्फोट (2007) अजमेर शरीफ दरगाह विस्फोट (2007) हैदराबाद में मक्का मस्जिद विस्फोट (2007) नांदेड़ और परभणी मस्जिद विस्फोट (2003-2006)। एटीएस ने शुरू में इन विस्फोटों को एक बड़े हिंदुत्व आतंकवादी नेटवर्क का हिस्सा मानने का तर्क दिया था, जिसकी विचारधारा, धन और लोग एक जैसे थे। 2011 में एनआईए के इसकी जांच संभालने के बाद इस कहानी को चुपचाप दरकिनार कर दिया गया। इस खुलासे ने सामाजिक और राजनीतिक हलकों में तीखी प्रतिक्रियाएं पैदा की हैं। सोशल मीडिया पर इस मामले को लेकर चर्चा तेज है, जहां कुछ लोग इसे जांच एजेंसियों की विफलता बता रहे हैं, तो कुछ इसे सुनियोजित साजिश का हिस्सा मान रहे हैं। एक्स पर तमाम लोगों ने इस मामले में गायब दस्तावेजों पर सवाल उठाते हुए गृह मंत्रालय से जवाब मांगा। बहरहाल, मालेगांव विस्फोट मामले में दस्तावेजों के गायब होने और मूल बयानों के खो जाने की घटना ने जांच प्रक्रिया की निष्पक्षता पर सवाल खड़े किए हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह की खामियां न केवल न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं, बल्कि आम जनता के बीच जांच एजेंसियों के प्रति विश्वास को भी कम करती हैं। आने वाले दिनों में इस मामले में आगे की जांच और जवाबदेही तय करने की मांग जोर पकड़ सकती है। स्रोत : विभिन्न मीडिया रिपोर्टस

रविवार, 3 अगस्त 2025

संघी व्यवस्था जे एस यूनिवर्सिटी फर्जीवाड़ा...203 में से 202 अभ्यर्थियों की फर्जी निकलीं डिग्रियां, दर्ज हुआ केस

संघी व्यवस्था जे एस यूनिवर्सिटी फर्जीवाड़ा...203 में से 202 अभ्यर्थियों की फर्जी निकलीं डिग्रियां, दर्ज हुआ केस शिकोहाबाद की जेएस यूनिवर्सिटी में फर्जीवाड़े का बड़ा खुलासा हुआ है। यूनिवर्सिटी की बेचलर ऑफ फिजिकल एजुकेशन (बीपीएड) की डिग्रियां फर्जी निकलीं। गाैरतलब है कि फर्जी डिग्री प्रकरण में यूनिवर्सिटी के कुलाधिपति और रजिस्ट्रार पहले ही जेल भेजे जा चुके हैं। शिकोहाबाद की जेएस यूनिवसिर्टी के प्रकरण में एक और नया खुलासा स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप (एसओजी) की जांच में हुआ है। यूनिवर्सिटी से जारी की गईं बेचलर ऑफ फिजिकल एजुकेशन (बीपीएड) की डिग्री लेने वाले 203 में से 202 अभ्यर्थी जांच में फर्जी निकले हैं। मात्र एक अभ्यर्थी की डिग्री ही जांच में सही पाई गई है। अब एसओजी इस मामले से जुड़े हुए दलालों की धरपकड़ के लिए दबिश दे रही है। साथ ही केस दर्ज करने की तैयारी कर रही है।

शनिवार, 2 अगस्त 2025

कम्युनिस्ट नेता सैय्यद नासिर हसन

#_सैय्यद_नासिर_हसन 2 अगस्त 1928 यौमे पैदाइश देशद्रोह के आरोप में ब्रिटिश सरकार द्वारा हिरासत में लिए गये आज़ाद हिंद फ़ौज के सैनिकों की रिहाई की मांग को लेकर छात्र आंदोलन का नेतृत्व करने वाले सैय्यद नासिर हसन का जन्म 2 अगस्त 1928 को आंध्र प्रदेश के हैदराबाद में एक स्वतंत्रता सेनानी परिवार में हुआ था, उनके पिता सैय्यद आलम बरदार और माँ ज़ोहरा थीं, हसन की नानी फ़करुल हाजिया हसन एक प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी थीं, उनके मामा आबिद हसन सफ़रानी, बदरुल हसन, प्रो. जाफ़र हसन ने भी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी, हैदराबाद के सिटी कॉलेज में पढ़ाई के दौरान नासिर ने 1946 में छात्र आंदोलन में प्रवेश किया, जिसमें ब्रिटिश सरकार द्वारा हिरासत में लिए गये आज़ाद हिंद फ़ौज के सैनिकों की रिहाई की मांग की गई थी, नासिर ने 1947 में स्वतंत्रता के बाद निज़ाम राज्य के भारतीय संघ में विलय की मांग का भी समर्थन किया, उन्होंने इस आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया, उन्होंने छात्रों का नेतृत्व किया, जिन्होंने हैदराबाद राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष के घर का घेराव किया और उनसे निज़ाम सरकार पर विलय के लिए दबाव बनाने की मांग की, जब निज़ाम पुलिस ने नलगोंडा जिले के सूर्यपेट में विलय समर्थक आंदोलन के कार्यकर्ताओं पर दमनात्मक हमले किये, तो नासिर ने सितम्बर 1946 में दमन के खिलाफ़ आंदोलन का नेतृत्व किया, भारत को आज़ादी मिलने के बाद नासिर साम्यवाद की ओर आकर्षित हुए, वे प्रगतिशील लेखक सज्जाद ज़हीर के निमंत्रण पर पाकिस्तान गये, उन्होंने किसानों और मज़दूरों की ओर से पाकिस्तान में जन आंदोलन का नेतृत्व किया, वे कम्युनिस्ट पार्टी, सिंध प्रांतीय शाखा के सचिव के पद तक पहुँचे, नासिर की जन-समर्थक गतिविधियों से नाराज़ पाकिस्तान की सैन्य सरकार ने उन्हें दो साल के लिए निर्वासित कर दिया और उससे पहले उन्हें लगभग चार साल तक नज़रबंद रखा, निर्वासन की अवधि के दौरान, वे हैदराबाद पहुँचे और अपने माता-पिता के साथ समय बिताया, उस दौरान, वे परिवार को होने वाली परेशानियों से बचाने के लिए प्रचार से दूर रहे और निर्वासन की अवधि समाप्त होने के बाद पाकिस्तान लौट आये, बाद में पाकिस्तान की सैन्य सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और लाहौर किले की जेल में बंद कर दिया, और वहीं 13 नवम्बर 1960 को सैय्यद नासिर हसन को जहर देकर मार दिया गया,

शुक्रवार, 1 अगस्त 2025

कोल्लम जिला सम्मेलन के दृश्य उ प्र के लोग सबक ले

कोल्लम जिला सम्मेलन के दृश्य उ प्र के लोग सबक ले

क्या देश कानून व्यवस्था विहीन ’ बन गया है : भाकपा सांसद ने केरल की नन की गिरफ्तारी पर पूछा

क्या देश कानून व्यवस्था विहीन ’ बन गया है : भाकपा सांसद ने केरल की नन की गिरफ्तारी पर पूछा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के सांसद पी. संदोष कुमार ने मंगलवार को कहा कि केरल की दो कैथोलिक नन की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) शासित छत्तीसगढ़ में मानव तस्करी और जबरन धर्म परिवर्तन के आरोप में गिरफ्तारी ‘‘अजीब और चौंकाने वाली’’ है और उन्होंने सवाल किया कि क्या देश ‘‘बनाना रिपब्लिक’’ (कानून व्यवस्था विहीन राष्ट्र) बन गया है। मीडिया में आयी खबरों के अनुसार, केरल की दोनों नन को हाल ही में छत्तीसगढ़ के एक रेलवे स्टेशन पर मानव तस्करी और जबरन धर्म परिवर्तन के आरोपों में गिरफ्तार किया गया था। कुमार ने ‘पीटीआई-वीडियो’ से कहा, ‘‘यह एक अजीब और चौंकाने वाला मामला है। इन पर भारतीय दंड संहिता (बीएनएस) की धारा 143 के तहत मानव तस्करी का आरोप लगाया गया है। अगर एक से अधिक पीड़ित हों, तो इस अपराध में 10 साल से अधिक की सजा हो सकती है।’’ उन्होंने पूछा, ‘‘दुर्ग स्टेशन से आगरा स्टेशन तक की यात्रा को मानव तस्करी कैसे कहा जा सकता है? क्या यह देश ‘बनाना रिपब्लिक’ बन गया है?’’ भाकपा सांसद ने कहा, ‘‘भाजपा के राज में सभी अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है। ईसाई नन और पादरी अब अपने पारंपरिक वस्त्र पहनने से भी डरने लगे हैं।’’ उन्होंने कहा कि यह घटना एक बार फिर से भाजपा का ‘‘पर्दाफाश’’ करती है। उन्होंने कहा, ‘‘पिछले साल देश में ईसाई समुदाय के खिलाफ 834 से ज़्यादा अत्याचारों की घटनाएं दर्ज की गई थीं। इस साल भी यह सिलसिला लगातार जारी है। हम इनके आगे झुकने वाले नहीं हैं, हम अपना संघर्ष जारी रखेंगे।’’ कुमार ने कहा कि वाम दलों का एक प्रतिनिधिमंडल छत्तीसगढ़ का दौरा कर रहा है, जो रायपुर और दुर्ग भी जाएगा। उन्होंने कहा, ‘‘इन नन को तत्काल रिहा किया जाए। इनके खिलाफ लगाए गए आरोपों का कोई आधार नहीं है। हम इस मामले से पूरी ताकत से लड़ेंगे।’’ बहरहाल, भाजपा की केरल इकाई ने साय के बयानों से खुद को अलग करते हुए कहा कि नन किसी मानव तस्करी या जबरन धर्म परिवर्तन के प्रयास में शामिल नहीं थीं।
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